






पथिक हूं। चलना मेरा काम। चल रहा हूं। मंजिल मिले या नहीं मिले। चिंता नहीं। अपन तो बस ओशो को याद करते हैं। मैं रास्तों में विश्वास नहीं करता। मेरा विश्वास चलने में हैं। क्योंकि मैं जानता हूं कि जहां भी मैं चलूंगा,वहां रास्ता अपने आप बन जाएगा। रास्ते रोने से नहीं, रास्ते चलने से बनते हैं।
2 comments:
मैंने तो आपके इस लेख से स्वर्ग से सुन्दर झूमरीतिलैया के दर्शन कर लिए..... कही कही तो ये लगा में भी शायद इस वक़्त झूम्रितिलैया की गलिओं में ही विचार रहा हूँ.... एक बार जो पढना शुरू किया तो कहीं भी रुकने का मन नहीं किया....
कंकड़ शंकर वाला मेरा शहर
यह हेडिंग किसी को भी यह सोचने पर मजबूर कर देती है की आखिर कैसा होगा वह शहर. मैं एक बात बिलकुल साफ़ कर देना चाहता हूँ कि डॉक्टर संतोष मानव को में व्यक्तिगत रूप से जनता हूँ. आज आठवी बार इस लेख को पढने के बाद कुछ लिखने कि हिम्मत जुटा पाया हूँ. इसका मतलब यह नहीं कि मुझे लिखना नहीं आता हैं. लेकिन मैं इस लेख को पढ़ते पढ़ते आखिरी पन्ने तक बड़ी मुश्किल से ही पहुच पता था. क्योंकि वह तक पहुचने पर मेरी आँखों में सिर्फ और सिर्फ आंसू होते थे. मैं किसी तरह से अपने आंसुवो को अपनी पलकों मैं दबाकर बस अपने कंप्यूटर से उठ जाता था कि ऑफिस में लोग यह न पूँछ ले कि क्यों मित्र क्या बात है आज आप की ऑंखें आपका साथ नहीं दे रही हैं.और ऑफिस में आंसू का मतलब हर कोई समझता है,
लेकिन कहा जाता हैं की वक़्त के साथ सब बदल जाता है. बार बार पढने से में भी आज उतना भाव विह्वल नहीं हुआ.
और में डॉक्टर संतोष मानव जी को बधाई देता हूँ की उनकी कृपा से हमने एक ऐसे सहर की कल्पना की. जिसे सिर्फ हमने सुना था. और आग्रह भी करता हूँ की आगे भी ऐसे लेख पढने को मिलेंगे जिन्हें पढ़कर हम अपने अतीत में खो जायेंगे
नीरज मिश्र
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