अवतार सिंह पाश की कविता हो
या घूमिल, दुष्यंत की
अब खून गरम नहीं होता
इसलिए कि कायर हो गया हूं मैं
इतना कि अन्याय के खिलाफ बोल नहीं फूटते
शब्द नहीं मिलते
इतना कायर कि
सीने पर पड़े लात को सहलाता
गाल पर पड़े तमाचे को सराहता हूं
चीख. चीख कर कहता हूं
यह शाबासी है
स्वाभिमान मर गया है मेरा
धमकियों के आगे घिघियाता हूं मैं
साहबों के आगे मेमना बन जाता हूं मैं
वे चाहे जैसे मेरी मार लेते हैं
हां, ठीक जाना आपने
पैसा जोड़ने लगा हूं मैं
इसलिए कायर बन गया हूं मैं
राष्ट्रीय ‘समझ’ को चुनौती देते राजनेता!
8 years ago
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