Friday 2 October, 2009

काशी बाबू का अस्सी

जीवन में बहुत साथॅक या सकारात्मक नहीं हो रहा है। पर रोजी.रोटी है। रोजी में 24 धंटे का टेंशन। सो' पढना.िलखना कम ही हो पाता है। मन बंदर है। मानता कहाँ है। नींद और भोजन के बीच कुछ समय बचाया तो काशीनाथ सिंह का काशी का अस्सी पढ गया। काशी का अस्सी साहित्य की किस विघा मेंलिखा गया है, यह तो काशीनाथ सिंह जानें पर किताब है दिलचस्प। प्रकाशक के अनुसार, जिंदगी औरजिंदादिली से भरा एक अलग किस्म का उपन्यास। उपन्यास के परम्परित मान्य ढाँचों के आगेप्रश्नचिन्ह। बहरहाल अस्सी से गुजरते हुए याद आया कि अपन यह सब कहीं पढ चुके हैं। याद आया, हाँ हंस में धारावाहिक कें रूप में छपा था। पढी को फिर से पढना। मजा आ गया। गली, मुहल्लों की भाषा। गालियों की बौछार। पर संदेश छिपा है इसमें। पढिए तो फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास मैला आंचल या अबदुल्ल बिसमिल्लाह के उपन्यास झीनी झीनी रे बीनी चदरिया की याद आ जाए। साफ कर दूँ की यहतुलना गालियों की भरमार और भाषा में आंचलिक पुट को लेकर है। इसमें न कोई नायक है और ननायिका। न नायक न खलनायक। सुविघा के लिए काशी के अस्सी नामक इलाके को ही सब कुछ मानलें। कथित उपन्यास मजेदार है। पढेगे तो आनंद की गारंटी है। उपन्यास की कुछ गालियाँ यू हैं।पालििटक्स भोसडी के अपनी मइया चुदाय । जय काशी, जय बनारस और जय काशीनाथ

2 comments:

दिल दुखता है... said...

behtarin sirji....
kya mujhe bhi ye upanyas padne ko mil sakta hai...?
apka shnehpatra
lokendra singh rajput

www.जीवन के अनुभव said...

vaah sirji kya baat hai....
shabdo ka kya khub prastitikaran hai. aapki lekhani pathak ko baandh leti hai. yahi sikhana hai aapse. me bhi ikshuk hu ye upanyas padane ki.