Friday 18 December, 2009

अपना भाई नेता बन गया




2 comments:

Unknown said...

वैसे तो सर मैं आपका ब्लॉग पहली बार पढ़ रहा हूं लेकिन अपन भाई नेता बन गया पर लेख बहुत ही अच्छा लगा। इसके बावजूद देखा जाए तो भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी को सांगठनिक सफलता तभी प्राप्त होगी जब उन्हें जेटली की केटली को फोड़ने का अधिकार प्राप्त रहे। सुषमा स्वराज उनके इशारे पर चलने के लिए मजबूर की जाएं। आडवाणी के चेले चपाटों को जब भाजपा कार्यलय से दूर कर दिया जाए। यदि नितिन गडकरी को भी भाजपा का अध्यक्ष पद राजनाथ सिंह की तरह ही दिया गया है तो गडकरी तीन वर्षों में कोई क्रांति कर देंगे ऐसी अपेक्षा पालना सरासर अन्याय होगा।
भारतीय जनता पार्टी और खुद लालकृष्ण आडवाणी की ओर से जिस बात की कोशिश थी वही हुआ है। लालकृष्ण आडवाणी पर नेता विपक्ष का पद छोड़ने का जो दबाव था उसे उन्होंने मान लिया लेकिन पार्टी से हटकर नहीं, बल्कि पार्टी में और ऊपर उठकर। संसदीय व्यवस्था में भले ही उनके नये पद का कोई मतलब न हो लेकिन पार्टी में उनकी सुप्रीमेसी बनी रहेगी। कहा जा सकता है कि आडवाणी संघ को पूरी तरह साधने में सफल रहे। तभी शायद संघ की बातों में चली आडवाणी की। मोहनराव भागवत जो चाहते थे वह कुछ नहीं हुआ। मोहनराव भागवत चाहते थे कि आडवाणी की बजाय डा. मुरली मनोहर जोशी को संसदीय दल का नेता बनाया जाए और आडवाणी को एनडीए का अध्यक्ष लेकिन आडवाणी ने आखिरकार पार्टी की सबसे मजबूत बाडी संसदीय बोर्ड में अपनी जगह बरकार रखी और नई दिल्ली के पार्लियामेन्ट में संक्षिप्त बैठक में पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने संशोधन पर पार्टी की मंजूरी की मुहर लगवाकर उन्हें संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष बनवा दिया। भाजपा संसदीय दल की संक्षिप्त बैठक में बोलते हुए लालकृष्ण आडवाणी ने कहा भी कि एक रथयात्री की यात्रा का अंत नहीं हो रहा है। बल्कि उनके राजनीतिक जीवन की एक नयी शुरुआत हो रही है। साफ है, आडवाणी मैदान से हटने को रत्तीभर भी तैयार नहीं थे। और हुआ भी वही। हां, तकनीकि रूप से अब वे वह हैसियत नहीं रख पायेंगे जो लोकसभा में अब तक नेता विपक्ष के बतौर रखते थे लेकिन पार्टी फोरम और संगठन पर आडवाणी ने अपना दावा बरकार रखा है। देखा जाए तो आडवाणी ने केवल राजनाथ सिंह और भाजपा के आला नेताओं को ही गलत साबित नहीं किया बल्कि देश के मीडिया, संघ और सभी राजनीतिक दलों को भी गलत साबित कर दिया। यही आडवाणी की राजनीतिक चतुराई है। अब सवाल यह है कि क्या नितिन गडकरी अरूण जेटली और सुषमा स्वराज से काम करा पाएंगे? पार्टी के अंदर नितिन गडकरी की कितनी चल पाएगी।

Unknown said...

वैसे तो सर मैं आपका ब्लॉग पहली बार पढ़ रहा हूं लेकिन अपन भाई नेता बन गया पर लेख बहुत ही अच्छा लगा। इसके बावजूद देखा जाए तो भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी को सांगठनिक सफलता तभी प्राप्त होगी जब उन्हें जेटली की केटली को फोड़ने का अधिकार प्राप्त रहे। सुषमा स्वराज उनके इशारे पर चलने के लिए मजबूर की जाएं। आडवाणी के चेले चपाटों को जब भाजपा कार्यलय से दूर कर दिया जाए। यदि नितिन गडकरी को भी भाजपा का अध्यक्ष पद राजनाथ सिंह की तरह ही दिया गया है तो गडकरी तीन वर्षों में कोई क्रांति कर देंगे ऐसी अपेक्षा पालना सरासर अन्याय होगा।
भारतीय जनता पार्टी और खुद लालकृष्ण आडवाणी की ओर से जिस बात की कोशिश थी वही हुआ है। लालकृष्ण आडवाणी पर नेता विपक्ष का पद छोड़ने का जो दबाव था उसे उन्होंने मान लिया लेकिन पार्टी से हटकर नहीं, बल्कि पार्टी में और ऊपर उठकर। संसदीय व्यवस्था में भले ही उनके नये पद का कोई मतलब न हो लेकिन पार्टी में उनकी सुप्रीमेसी बनी रहेगी। कहा जा सकता है कि आडवाणी संघ को पूरी तरह साधने में सफल रहे। तभी शायद संघ की बातों में चली आडवाणी की। मोहनराव भागवत जो चाहते थे वह कुछ नहीं हुआ। मोहनराव भागवत चाहते थे कि आडवाणी की बजाय डा. मुरली मनोहर जोशी को संसदीय दल का नेता बनाया जाए और आडवाणी को एनडीए का अध्यक्ष लेकिन आडवाणी ने आखिरकार पार्टी की सबसे मजबूत बाडी संसदीय बोर्ड में अपनी जगह बरकार रखी और नई दिल्ली के पार्लियामेन्ट में संक्षिप्त बैठक में पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने संशोधन पर पार्टी की मंजूरी की मुहर लगवाकर उन्हें संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष बनवा दिया। भाजपा संसदीय दल की संक्षिप्त बैठक में बोलते हुए लालकृष्ण आडवाणी ने कहा भी कि एक रथयात्री की यात्रा का अंत नहीं हो रहा है। बल्कि उनके राजनीतिक जीवन की एक नयी शुरुआत हो रही है। साफ है, आडवाणी मैदान से हटने को रत्तीभर भी तैयार नहीं थे। और हुआ भी वही। हां, तकनीकि रूप से अब वे वह हैसियत नहीं रख पायेंगे जो लोकसभा में अब तक नेता विपक्ष के बतौर रखते थे लेकिन पार्टी फोरम और संगठन पर आडवाणी ने अपना दावा बरकार रखा है। देखा जाए तो आडवाणी ने केवल राजनाथ सिंह और भाजपा के आला नेताओं को ही गलत साबित नहीं किया बल्कि देश के मीडिया, संघ और सभी राजनीतिक दलों को भी गलत साबित कर दिया। यही आडवाणी की राजनीतिक चतुराई है। अब सवाल यह है कि क्या नितिन गडकरी अरूण जेटली और सुषमा स्वराज से काम करा पाएंगे? पार्टी के अंदर नितिन गडकरी की कितनी चल पाएगी।