Wednesday 6 May, 2009

यह एक पुरानी कविता है, कदाचित सन 90.91 की, तब उमर होगी 20.22 साल. बचपना लगे तो एडवांस में माफी. पर अपन राम की नजर में कविता स्वान्तः सुखाए है.
उसे देखा था
सड़क पार करते हुए
पसीने से तर.बतर
मेरी नायिका थी वह
एक दिन उसे देखा
बरामदे से झांकते हुए
गमगीन उदास आंखें
जंजीरों में कैद
किसी की बेटी थी वह
फिर उसे देखा
लाल जोड़े में
लजाती.सकुचाती
एक लाल कार में
किसी की पत्नी थी वह
एक रात वह सपने में आई
चिल्लाई, कुछ कहा
धन, सोना
अब मैं समझा
न नायिका
न बेटी
न पत्नी
किसी घनवान की
जायदाद थी वह

1 comment:

maidan se said...

sir
namashkar.
aapki kavita badi hi achhi lagi. bade dino baad aapki lekhni ka fir ehsas hua. mai kabhi kabhi is site per ghum leta hun. pahli baar ehsaas hua ki padhte rahna chahiye. mera to padhna hi band sa ho gaya hai.
aapka lekh aur kavitaen padhkar laga ki padhna chahiye. aapki lekhni ko mai bahut yaad karta hun.

pankaj jain